मेरी काव्यखण्ड कलयुग से
मेरी काव्यखण्ड कलयुग से
--------
काल चक्र चलता रहेगा....
तिल-तिल कर ही छूट रहा है, गत प्राचीन सभी मानक,
नगरों को वैभव ने लूटा ,कर दिया मंद मति भ्रामक।
सहज सरल सुंदर मनमोहक ,जीवन ग्रामीण हमारा,
जिजीविषा को था दर्शाता, मनभावन रहा नज़ारा।४२१
भूख जमा करने धन की नहि,अनजान रहे धन घपला,
मोह नहीं थे हीरे मोती ,धन होता कंडा उपला,
अनुकरणी था ग्राम्य भावना,आपस का भाईचारा,
लोग थे अपने अपने मालिक ,कोई नहि था बेचारा।४२२
बिखरा था दृग छोर अनूप, रम्य रमणीक हरियाली,
क्रांकीट जंगल में रहते अब, रोते आँसू घड़ियाली।
नैनों को देता शीतलता ,खेत हमें लगता प्यारा।
खलिहान खेत पशुधन ही थे,जीने का बना सहारा।४२३
अपनी नेह थी प्रकृति लुटाती, दोनों हाथों गाँवो में
पा कर भी खोया है मनुष्य ,चक्र लगा जब पाँवों में।
समझ परे कलयुग में आकर, मानव जीता या हारा,
फिर अवलोकन करना होगा,हमे प्रगति का दुबारा।४२४
किंकरी बना है आज मनुज कल पुर्जा मिल राज करे,
मेघा बुद्धि रीझने वाले ,भूला कल का साज करे।
मीठे मीठे खाने वाले ,स्वाद भूल बैठे खारा,
चिंतित मन,मन कुरेदता चिंतन का नहीं गुजारा।४२५
--------डॉ ममता तिवारी (छत्तीसगढ़)
Gunjan Kamal
09-Sep-2023 03:42 PM
👏👌
Reply
Shashank मणि Yadava 'सनम'
05-Sep-2023 08:11 AM
बहुत ही सुंदर और बेहतरीन अभिव्यक्ति
Reply